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जाने वाले दिन खुद को व्यस्त रखती हूँ

  • Writer: Pahadan
    Pahadan
  • Apr 20, 2021
  • 2 min read

Updated: Jun 4, 2021

जाने वाले दिन मैं खुद को व्यस्त रखती हूँI


इतना व्यस्त की खुद को कुछ समय ही ना मिले

और नहीं देती मैं समय किसी भी ख़्याल को घर करने के लिएI


पूरे कमरे को फैला देती हूँ|

अलमारी से कपड़े निकलती हूँ, कुछ ले जाने को सोचती हूँ पर फिर वापिस रख देती हूँ |


मेरे सवाल भी दुगने हो जाते हैं |

क्या लेकर जाऊँ ?

क्या क्या छोड़ जाऊँ ?

सफ़र के लिए कौनसे कपड़े सही रहेंगे?

फ़्लाइट छूट गयी फिर ?

गाड़ी वाले ने मुझे किडनेप कर लिया तो?

और जाने कितने ऐसे सवाल जो मैं बस बड़ बड़ करती रहती हूँ |

तुमसे उनमें से किसी के उत्तर नहीं सुनती,

पर बस पूछती रहती हूँ I


जो थोड़ा समय रह जाता है

तो उसमें कुछ एक शिकायतें कर देती हूँ I

कबसे कहा हुआ है कि खिड़की की जाली से मच्छर आते हैं ,

पर तुम मरम्मत नहीं करातेI

और ये स्विच,

दो बार करेंट लग चुका है मुझे,

लेकिन एक तुम हो जो सुनते ही नहीं I

जो जाने का समय निकट आता है,

और झुंझलाने लगती हूँ,

कमरा फैला और बैग मुहँ पसारे पड़े रहते हैI

समय कम होता जाता है और काम ज़्यादाI


हाँ, जाने वाले दिन मैं खुद को व्यस्त रखती हूँ ,
और तुमको भी तो I

तुम कितने व्यस्त रहते हो,

कहते कुछ नहीं बस सारे काम करते होI

कपड़ों को तह लगाने से लेकर उन्हें बैग में जमाने तक,

छूटे हुए काग़ज़ों और आइडी संग

खुल्ले पैसे से लेकर बंधे नोटों तक,

सब कुछ तुम ध्यान से मेरे बटुए में रख देते होI


और जो कुछ समय तुम पर भी बच जाता है,

तो उनमें तुम कुछ ऐसी व्यस्तताएँ पाल लेते हो जो शायद आने वाले चार सप्ताह में भी तुम ना करतेI


जैसे?

.

.

.

जैसे...

कमरे के पीछे वाली टांढ़ पर चढ़कर सफ़ाई करना

स्टोर के जाले उतारना , या गमलों की गुड़ाई करने लगते होI

अगर कुछ ना मिले,

तो बैठक की सिचूएशन बदलने लगते हो,

सोफ़ा ज़रा सा तिरछा करके समझते बड़ा नयापन आ गया!

और शाम होते होते खुद को इतना थका देते हो कहकर की बहुत काम कर लियाI


देखो ना, जाने वाले दिन हम कितने व्यस्त रहते हैंI

पर शायद इन खुद से निर्मित व्यस्तताओं में,

बच रहे होते हैं एक दूसरे से

हम कट रहे होते हैं किसी संवाद से|

और फिर जो मेरे जाने का वक्त आता है,

दिन भर में तब तुम कहते हो,


सब रख लिया ? कुछ रह तो नहीं गया ?


तब पूरे दिन के बाद में कुछ पल को मौन रहती हूँ,

उस वक्त मेरा मन धक्क सा हो जाता है

और तुम्हें देखते हुए सोचती हूँ,


हाँ मैंने सब रख लिया,

वो सब जो मैं पिछले चार दिन से अपने बैग के पास इकट्ठा कर रही थी

और जिन्हें आज सवेरे तुमने बड़े क़रीने से जमाया था


वो सारे कपड़े जिनमें से आधों की तो दो महीनो तक शायद ही तह खुले,

फ़ोन का चार्जर, पर्स मोबाइल और लैप्टॉप, सब कुछ रख लिया

बस नहीं रख पायी तो वो थे थोड़े से तुम


जाने वाले दिन व्यस्त रहती हूँ मैं ,

रखने को वो तमाम चीजें

पर फिर भी जाते जाते छूट जाता ही कोई किताब, मोज़े का एक जोड़ा, सूट के संग की शाल


फिर भी नहीं छूट पाती तुम्हारे पास थोड़ी सी मैं

और नहीं रख पाती

मेरे पास थोड़े से तुम



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