बरसात आ गई
- Pahadan
- Jul 24
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एक रोज़ पूरे दो दिन के बाद जब तुम होश में आए थे, तो सबसे पहले मुझसे यही पूछा था, “छुटकी बरसात आ गई?”
वो मार्च का दिन था, मैं थोड़ी चौंकी पर फिर लगा तुम मेरी फिरकी ले रहे हो। लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वही सवाल, “बरसात आ गई क्या?”
इस बार मैं बस आईसीयू से उठ कर बाहर आ गई और मैंने विनायक से कहा था, देखना जैसे ही बरसात आएगी, पापा चले जायेंगे!
उस दिन मुझे पहली बार एहसास हुआ था, की अब ज़्यादा दिन हम बदलती ऋतुएँ संग नहीं देख पाएंगे।
वैसा ही हुआ, बरसात आई और सावन के चौथे दिन, तुम चले गए। उस रोज़ दिन भर बारिश होती रही, और आँगन में गिरी हर वो बूँद मुझे यही एहसास कराती रही, की जैसे बादल जाने देते हैं बूँदों को, वैसे ही मुझे भी अब तुम्हें, इस जीवन के लिए जाने देना होगा।
इस बात को आज पूरा एक साल हो गया, और जुलाई आते ही आस पास के लोगो ने कहा, देखो पापा को गए एक साल हो गया। समय कैसे भागता है।
पर सच तो ये है, ये मेरी ज़िन्दगी सबसे लंबा और मुश्किल साल था। सबने तो ये भी कहा की समय काटो और धीरे धीरे सब ठीक होगा। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं, तुम्हारे जाने के बाद का हर वो दिन उतना ही भारी रहा जितना वो दिन।
इस पूरे साल में मैंने तुम्हें सिर्फ़ उस दिन नहीं खोया था, पर तुम्हें खोया हर दिन किसी ना किसी रूप में। मैंने तुम्हें खोया तीज त्योहारों में, रोज़ मर्रा की तकरारों में, हर बार घर से जाने और लौटने में, माँ की उदासी में, कठिन निर्णय लेने में, दीवारों पर लगी तसवीरों में, तुमसे जुड़ी क़िस्सागोई में, यहाँ तक की तुम्हारे गुड मॉर्निंग वाले व्हाट्सएप की अनुपस्थिति में!
और मैंने तुम्हें खोया हर दिन और दिन के तमाम पलों।
इस पूरे साल का एक दूसरा पहलू भी था,
हम रुके नहीं। ऐसा क्या है जो हमने नहीं किया। सुबह उठे नहीं क्या, उठकर अपना बिस्तर नहीं बनाया, काम पर नहीं गए, दोस्तों से नहीं मिले, नई पिक्चर नहीं देखी, घूमा नहीं, खरीदारी नहीं करी, रिश्ते नहीं निभाये, ऐसा कुछ नहीं है जो हमने नहीं किया। इन्फ़ैक्ट तुम्हारे जाने के एक घंटे बाद ही मैं इंतज़ाम कर रही थी मेहमानों के खाने और रुकने की व्यवस्था का। एक ओर जहाँ समय अपनी गति से चल रहा था, वहाँ उस चक्के को हम बराबर से घुमा रहे थे। पर वहीं दूसरी ओर हमारे भीतर के कई हिस्से ना जाने कहाँ भटक गए, या तुम्हारे साथ ही चले गए।
शायद इस साल पहली बार और फिर कई कई बार मुझे लगा की अब मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, मुझे कुछ नहीं करना हैं क्योंकि मेरा कोई भी कर्म तुम्हें वापिस नहीं ला सकता और इसके इतर कुछ चाहिए भी नहीं।
कभी कभी लगता है तुम मेरे भीतर की बेफिक्री और अल्ल्हड़पन अपने साथ ही ले गए। क्योकि तब कायदे कानूनों की कोई परवाह ही नहीं थी, उनको तो तुम अपनी डाँट से याद दिलाते थे। और अब लगता है सारा समय बस निभाने में चला जाता है। वो भी सिर्फ़ इसीलिए की कोई पलट के ये ना कह दे की पापा होते तो तुम ऐसा ना करती।

मुझे तुम्हारे ना होने पर कभी क्रोध नहीं आया, ना मैंने कभी ईश्वर को दोष दिया क्योंकि मुझे पता है, दुनिया की तमाम तकलीफ़ों से बहुत छोटा है मेरा दुख।।
हाँ पर ये ज़रूर सोचा की अगर मैं तुम्हारी मनपसंद औलाद ना होती, तो तुमसे कुछ कम यादें जुड़ी होती और फिर शायद मुझे कम दुख होता। पर सत्य तो ये भी हैं ना, की उन तमाम यादों के भरोसे ही तो अब आगे वाले हर साल मुझे काटने हैं।
कोटि कोटि धन्यवाद इस कहानी के लिए ! बहुत कुछ याद आ गया !